तयमुड़ियाल ही कहते लेकिन यहां तयमाडियल=सम्मानीय शब्द आ गया है ,उसमे डिस्कशन जरूरी था । लेकिन भाषा मे बहुत ज्यादा क्षेत्रीय भिन्नता पायी जा रही है, इसको कैसे दूर करे सबसे बडी समस्या खड़ी हो रही है । हम एक तरफ एक होना चाह रहे बोली भाषा नेन्ग सेन्ग मिजान आदि से तो इसके लिए हमे क्या करना चाहिए ?
अभी भी क्षेतियता के आधार पर बहुत सारे शब्दो मे भिन्नता पायी जा रही है जो भाषाई कल्चर से उन शब्दो का हमारी कोयतुरियन शब्दो का कहीं से कही तक मेल नही खाता फिर भी हमे स्वीकार करना पड़ रहा है ।
उदाहरण के लिए = जय सेवा,हमारी सांस्कृतिक शब्द नही है फिर भी हम लादे फिर रहे है, क्योंकि हम हिन्दू संस्कृति के दल दल मे गले तक समा चुके है इसलिए जय हमे अच्छा लगने लगा है । जबकि प्राकृतिक कोयतुरियन शब्दो का अध्ययन करते है तो विजय के ई शब्द का उच्चारण होता है,जैसे बैल छकड़ा दौड़ मे= सुकलू ना जोड़ी मईसेत याने (याने सुकलू की बैल जोड़ी छकड़ा दौड़ जीत ली है ।
पुरातात्विक रहस्यमयी दिव्य शब्दो का अनादिकाल से संबोधन होता आया है जैसे :- जई जन्तूर्क,जयी जाड़ी,जयी जानवर, आदि आदि :-
ऐसे ही प शब्द को अपभ्रंश करके फ बोला जा रहा जैसे :- प= पड़ा होता है लेकिन यहाँ फ से फड़ा बोला जा रहा है पाल=दूध को, फाल=दूध बोला जा रहा है,ऐसे ही एक शब्द और धीरे धीरे प्रवेश कर रहा हो " गोंगो " यह शब्द पारसी मे कही से कही तक मेच नही खाता फिर भी अमल मै लाया जा रहा है । गोंगो याने क्या ? दूसरी ओर कोयतुरियन शब्दो को अगर मेच करते है तो जैसे पून्जा= पूजा,पू=पुंदाना याने जानना,जा=जावा याने सम्पूर्ण भोजन याने विशेष तिथियो को जो हमारे पुरखा पेन (देव) है को पून्जना याने उन्हे हूम धूप जल अर्पित कर विशेष पकवान (बन्ना देना) पकवान अर्पित करना इसे हम पारसी मे पुन्दीना पून्जा=जावा उहताना कहते है ।
ऐसे ही एक शब्द और कहीं का कही भटक रहा जैसे मंदा =रहता,रहती के लिए होता जबकि वर्तमान मे है के लिए मंदा को प्रयोग कर रहे है जबकि है के लिए हय्यू या हय्यूदं होता है । इस तरह भाषा मे मानकता न होकर और जादा क्षेत्रीयता मे भाषा का स्वरूप और निम्न होता जा रहा है ?
इसलिए भाषाविदो पारसी के जानकारो साहित्य जो छप रहे है क्या उसमे मानकता है या नही नकली प्रकाशको के उपर कार्यवाही करते रहने से भाषा मे सुध्दता बनी रहेगी अन्यथा अर्थ का अनर्थ और कचरे का ढेर साबित होगा ।